मुगल बादशाह हुमांयू ल हरा के शेरशाह सूरी जब दिल्ली के गद्दी म बइठिस त उपकारी भिश्ती ल एक दिन के राज मिलिस चतुरा भिश्ती राज भर म चमड़ा के सिक्का चलवा दिस एला कहिथें नवा प्रयोग। आजकल हमर देस म पढ़ई-लिखई के ऊपर अइसनेहे नवा-नवा प्रयोग होवत रहिथे। आजादी मिले साठ बरिस पूर गे फेर आजो सिक्छा के सरुप हर जनकल्याणकारी नई होये हे।
सन् 1993 म 14 साल तक के लइका मन बर मुफ्त अउ अनिवार्य सिक्छा ल मौलिक अधिकार के दर्जा मिल गइस। उत्ता धुर्रा गांव-गांव म इसकूल खुले लागिस भले ही ऊंहा पहली से पांचवी कक्षा तक बर दूये तीन झन सिक्छक रहंय। लइकन के संख्या सौ तको राहय बपुरा गुरुजी मन नौकरी बचाए बर घरो-घर जा जा के पढ़इया लइका सकेले लागिन, दूसर कती महतारी-बाप गुनिन पेट परे विद्या कामे आही फेर कापी किताब तो सरकारे देवत हावय। कतको आदिम जाति जनजाति के महतारी बाप इस्कालरसिप मं चार पैसा मिले के लोभ म लइकन के नाव ंलिखाइन भले लइका बछर भर म दसे दिन इसकूल जावय…।
एक ठन नवा प्रयोग अऊ होइस ”मध्यान्ह भोजन” के व्यवस्था अब का बाहिचस पूछे बर इसकूल के दर्ज संख्या म बढ़ोतरी हो गइस। लइकन चलिन इसकूल पढ़े बर नहीं मंझनिया जुवार के दार भात खाये बर। पढ़ई-लिखई के बारा बजगे इसकूल म रंधनी घर बनगे, दू दूनी चार कहां लुकागे, अब तो गुरुजी मन नून तेल लकड़ी के जोगाड़ म लग गइन। पढ़ई के गुणवत्ता हजागे। विकास के सपना गुंगुवावन लागिस।
अउ एक बात सुरता आवत हावय के सन् 2002 म सिक्छा खंड तीन म अनुच्छेद 21(क) जोड़े गइस जेमा लिखाये रहिस ”उस रीति से दिया जावेगा जो राज्य कानून निर्धारित करेगा।” इही हर सिक्छा जगत म वैश्वीकरन के चलते भारत के सिक्छा नीति अउ व्यवस्था म भारी बदलाव के धुरी बनिस।
अइसे तो भारत म वैश्वीकरन के शुरुआत के औपचारिक घोषणा सन् 1991 म नवा आर्थिक नीति के घोषणा के संगे संग हो गए रहिस तेई पाय के पढ़ई-लिखई बर कर्जा अउ अनुदान कार्यक्रम शुरु होइस जेला ”जिला प्राथमिक सिक्छा कार्यक्रम” के नांव से लोगन जानिन। ”सर्व सिक्छा अभियान” अउ राजीव गांधी साक्छरता मिसन के फायदा घलाय लोग उठाये लागिन। उच्च सिक्छा के साध पुरोए बर ”इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय” खुलिस बड़ खुसी के बात आय।
गुने बर ये परत हावय के गांव-गंवई के इसकूल म जिहां किसान मजदूर कमिया, पहटिया मन के लइको मन पढ़त-लिखत हांवय ऊंहा आधुनिक कक्छा गियान, बिग्यान, सूचना, प्रौद्योगिकी, तकनीकी ज्ञान देवई के का व्यवस्था करे गे हावय? ऊहां तो पढ़ई-लिखई के मतलब आजो तक गुणा भाग, दरस्खत करके रमायन बांच लेना तक ही सीमित हावय।
बन, जंगल, पहाड़ म खुले इसकूल म पढ़इया मन कइसे भारत के आधुनिक सिक्छा पध्दति के मुख्य धारा म जुरे सकहीं। रोजी-रोजगार देहे लाइक सिक्छा व्यवस्था के सपना कब सच होही? साक्छर होना अऊ देस के विकास म बरोबरी के हिस्सा बनना दूनो अलग-अलग बात आय ऐला हमन ल समझे गुने बर परही। कारण आजकल समान इसकूल प्रणाली के जघा म बहुपरती शिक्षा व्यवस्था के बोलबाला बाढ़त जावत हावय। कम्प्यूटर देय म नई बनय ओकर उपयोग घला सिखोये बर परही।
आज सूचना प्रौद्योगिकी अऊ संचार क्रांति म भारत के गिनती विश्व के गणमान्य देश मन म होये लागे हावय। गांव-गांव के पढ़ईया लइका मन तक एकर लाभ नइ पहुंचही देस के बहुत बड़ जनसंख्या सिक्छा के नवा अंजोर के सुख नई पाए सकय…। दुख तो तब होथे जब देखथन के आज सिक्छा पध्दति के निर्धारण सिक्छा शास्त्रीय सिध्दान्त ऊपर निरभर नइये बल्कि सूचना प्रौद्योगिकी अऊ ओकर व्यापार करइया कम्पनी मन के तर्ज म होवत हावय। श्रध्दा भक्ति के अधार गुरुजी मन दिनोंदिन नंदावत जावत हांवय… सिक्छा कर्मी मन के दिन आ गए हावय… टयूशन के धंधा सुरसा कस मुंह फारत दिखत हावय…। लइकन के बस्ता के बोझा बाढ़त जावत हावय महतारी-बाप के जेब हल्का होवत जावत हावय। लइकामन के स्वाभाविक विकास नइ होय सकत हे काबर पढ़ई-लिखई के चलते उनला खेले, घूमे के समय नई मिलय। सब स्वस्थ नागरिक कइसे बनही?
सन् 1970 के आसपास ले अंगरेजी माध्यम वाला इसकूल खुले ल लगे। अब तो हालत ये हे के साधारण गृहस्थ मन घलाय पेट काट के लइकन ल गैर सरकारी, महंगी फीस वाला अंगरेजी स्कूल म पढ़ावत हांवय। उन कर कहना हे कि वैश्वीकरन के चलते देश म बहुराष्ट्रीय कम्पनी जघा-जघा खुल गे हे लइकामन ल नौकरी पाना हे त इही कम्पनी मन के सरण म जाये बर परही। एकर बर अंगरेजी के जानकारी जरूरी हावय। बात तो सोरहो आना के होइस फेर हिन्दी माध्यम के लइकन अपन पढ़ई-लिखई के कतका फायदा उठाये सकही?
अब रहिस बात अनिवार्य शिक्षा के तहत आदिम जाति जनजाति, आदिवासी पढ़इया मन के त लगभग 17 प्रतिशत आदिवासी मन आघू पढ़े बर अघुवावत दिखथे जबकि मात्र 7 प्रतिशत मन उच्च शिक्षक संस्थान तक पहुंचे पाथे। दीगर कारण जौन होवय शिक्षा के दिनोंदिन महंगी होवई हर मुख्य कारण आय अधिकतर गरीबी-रेखा के नीचे अवइया लइकन मन पेट भरे खातिर, चार पइसा कमाए बर लग जाथे अऊ उच्च शिक्षा के सपना घलाय देखे नई सकंय। भारत असन देश म संसाधन के कमी के चलते ही सिक्छा व्यवस्था के पूरा लाभ नइ मिले पावत हावय। रोजगार मूलक शिक्षा के स्थापना होये बिना समान सिक्छा व्यवस्था के लाभ मिल पाना कठिन हे जरी ल पलोबो त तो डारा पाना मन हरियाही त सबले पहली जतका हाथ ततका काम होना जरूरी हे गरीबी के अंधियारी जाही तभे सिक्छा के प्रकाश दिखही। इहां तो उही हाल हे पेट के नांव जग जीता सांझे खाय बिहाने रीता। पढई अइसन होवय के लइकन अपन पांव म खड़े होये सकय इहां एक बात अउ बतावंव के लोगन के मन म पढ़ई के मतलब नौकरी घर कर गए हे ये विचार ल बदलना परही लार्ड मेकाले के बाबू बनइया सिक्छा के दिन अब नइए अब तो सिक्छा के मतलब गियान से हे रोजी रोजगार अपन बलबूता म चाहे जौन करव। हमर पुराना तइहा दिन के बिचान ल नवा-नवा अंजोर म देखव के सिक्छा गियान के अधार होथे, स्वावलंबी नागरिक बनाथे परबुध्यिा नौकर बनाथे बर शिक्षा के उपयोग झन करव। नकल करे से अकल नई बाढ़य, आज हमला सिक्छा के द्वारा अइसनहा अर्थ व्यवस्था लागू करना हावय जेकर द्वारा हमर देश अपन सामाजिक विकास के जरूरत के मुताबिक गियान देहे म सक्षम बनय अऊ ओकर उपयोग जनहित म होवय। तभे पढ़ई-लिखई हर सारथक होही समूचा देश बर कल्याणकारी अहिंसक अउ सर्वजन हितकारी होही।
सरला शर्मा
भिलाई
Muh khajri, ( satu samudram prakalp) ghalay la detew ta bat bantias.
” ओडा मासी धम , बाप पढे न हम ” अब तो भई घरो – घर , लइका -मन , पढत- लिखत हावैं , तेन हर खुशी के बात ए । सरला शर्मा ल बहुत – बहुत बधाई ।